- उमाशंकर सिंह
गांव, घरों में औरतों के नाम नहीं होते. खासकर ग्रामीण विवाहित औरतें के. उनके रिश्ते होते हैं और वही उनकी पहचान और उन्हें पुकारने का जरिया होता है. बचपन में मैं अपने हल्के से दूर की भी बुआ, मामी, मासी, भाभियों के नाम नहीं जानता था. शायद वे भी अपना नाम भूल गई हैं या जब वे अपनी जिंदगी की कहानी के फ्लैशबैक में अपने मायके या अपने स्कूल कॉलेज जाते होंगे तब उनके अपने नाम से जुड़े वाक्य उनके कान में बजते होंगे, जिनके दहलीज से अकेले और बिना पर्दा के जाने के नियम नहीं थे.
अब उनमें से अधिकांशों के फेसबुक पर अकाउंट हैं बकायदे अपने नाम से. उनमें से ज्यादतर के प्रोफाइल पिक लगे हैं. बना घूंघट के. कइयों ने तो काले चश्मे लगाए हुए हैं और अपने टशन वाले पोज भी मारे हैं.
फेसबुक पर मौजूद वो स्त्रियां अपने फादर इन लॉज और ब्रदर इन लॉज (पति के बड़े भाई जिनसे बात न करने और समने ना आने का रिवाज रहा है) की फ्रेंड लिस्ट में भी हैं. वे लिखती कम हैं, फोटोज लगाती हैं. मैंसेजर का यूज करती हैं. लिस्ट के जानने वाले लोगों और रिश्तेदारों के फ्रोफाइल चेक करती हैं.
शायद अपने पुराने प्रेमियों के प्रोफाइल को भी कभी कभी टटोल लेती होंगी. फेसबुक ने उनको उनका नाम वापस दिया है. उनके चेहरे के साथ उनकी पहचान वापस की है.
किसी से भी बिना किसी मध्यस्थ के बात करने की स्वतंत्रता दी है और तकनीकी रूप से ही सही अपने पति, ससुर, भसुर, देवर, बेटे का दोस्त बनाया है. काफी नहीं है पर कम भी नहीं है. वे अपने किचेन और परंपरागत घर से बाहर फेसबुक पर भी हैं. वे इस स्पेश को शायद कल और क्लेम करे तब फेसबुक सिर्फ राजनीतिक पार्टियों के नफरत फैलाने के औजार से ज्यादा प्यारी जगह बने.
(उमाशंकर सिंह हिंदी फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लिखते हैं. उनकी कहानी पर डॉली की डोली फिल्म और महारानी वेब सीरिज बन चुकी है. यह लेख उनकी फेसबुक वॉल से यहां साभार प्रकाशित किया जा रहा है.)
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'बेनाम औरतों को Facebook ने दिया नाम, अब मिली अपनी पहचान'