अस्पताल के प्रारंभिक कक्ष में जितने लोग मेरे साथ थे वह सब 65-70 साल के ऊपर ही रहे होंगे. जाहिर है इनकी गिनती बूढ़ों में होगी. मुझे उनके साथ बैठने में असहजता महसूस हो रही थी और मैं इस विशेषण को अपने लिए अभी तक स्वीकार नहीं कर पाया हूं. मेरी उम्र पता नहीं कैसे 23 पर ठहरी हुई है उसके आगे नहीं बढ़ती है. इसी हालत में घंटे-डेढ़ घंटे जरूर उस अवांछित संगति में जरूर बीते होंगे.
मैं 55 साल से ऊपर हुआ तब स्कूल-कॉलेज में मौखिक परीक्षा दी होगी जिसमें सारे विद्यार्थी एक हॉल में बैठा दिए जाते थे और एक-एक करके उनका नाम पुकारा जाता था और उनकी मौखिक परीक्षा होती. मानसिक त्रासदी (Mental torture) का यह दौर तब तक चलता था जब तक अपनी शहादत न हो जाए. जैसे ही परीक्षा खत्म होती थी तो लगता था कि अब साल-छ: महीने के लिए छुट्टी हो गई. इस बार तो ऐसा लगा जैसे मोक्ष हो गया.
मैं जिस शहर में रहता हूं वहां बकरों को एक ही रस्सी से लाइन में बांध देते हैं और वे अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं और कोई भी बकरा कसाई के साथ स्वेच्छा से नहीं जाता. कसाई को उन्हें मौत देने के लिए खींचकर ले जाना पड़ता है. ऑपरेशन थिएटर से जब मेरे नाम की आवाज की पुकार लगाई गई तो मुझे भी बकरे जैसा ही महसूस हुआ.
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बचपन में जब गांव में किसी कुतिया के पिल्ले होते थे तो हम लोग उनको उठा कर लाने की कोशिश करते थे और कुतिया ऐसा होने नहीं देती थी. कभी-कभी उसके चले जाने पर हम लोग पिल्लों के साथ खेलते थे लेकिन उनकी आंखें बंद रहती थी और वे कूं कूं करते हुए इधर-उधर घूमने की कोशिश करते थे लेकिन देख नहीं पाते थे. मैं भी इन दोनों आंखों के चक्कर में पिछले बहुत दिनों से कूं-कूं करता हुआ घूम रहा हूं और इंतजार कर रहा हूं कि मेरी दोनों आंखें एक साथ खुले तो मैं सामान्य जीवन बिता सकूं.
(दिनेश मिश्र प्रसिद्ध पर्यावरणविद् हैं. बिहार के बाढ़ प्रभावित इलाकों में उन्होंने काफी काम किया है. उनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं)
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