- अतुल कुमार राय
...और तब मेरी धड़कन रुक जाती,जब बाबूजी बताते कि एक रात जब वो मकई के खेतों में अकेले सोए थे. आसमान चटक चांदनी से नहाया हुआ था. हवा सनसना रही थी. ठीक तभी सामने वाले खेत से किसी के आने की आहट हुई थी. बाबूजी ने टॉर्च जलाना चाहा था. टॉर्च तो जल न सका था लेकिन एकाएक कुछ अनजाने हाथ उनके सामने बढ़कर पूछ बैठे थे, 'खैनी बा हो?'
तब बाबूजी ने बिना उनकी शक्ल देखे, अपनी चुनौटी की डिबिया उन हाथों में रख दी थी और सुबह गांव में निकलते हुए पाया था कि गांव के दक्षिण टोले के एक घर से चोरों ने लाखों का सामान निकाल लिया है.
और वो चोर कोई और नहीं हैं बल्कि वही थे जो कल रात उनसे खैनी मांगकर खाते हुए, हंसते हुए, किसी धुएं की तरह हज़ारों एकड़ में फैले मकई के खेतों में अदृश्य हो गए थे.
बाबूजी को ये भी मालूम था कि ददरी मेले में सबसे महंगा बैल उन्होंने कब बेचा. सबसे बढ़िया भैंस उन्होंने कब खरीदी. कार्तिक की बुवाई से समय निकालकर ददरी मेले में जाने से पहले अपने गाय-भैंस,बैल को कैसे तैयार किया था कि मेले में उनकी तारीफ़ की झड़ियां लग गई थीं.
हां, सबसे रंगबाज घोड़ा जिले में किसने रखा था. सबसे जातीय नस्ल की गाय जिले में किसके पास आज भी है. कई किसकी सबसे बरियार लगी है, आलू की फसल में कौन सबसे मुनाफा कमाएगा.
और तो और बाबूजी ने भिखारी ठाकुर को बुढ़ौती में गाते हुए देखा था.
मैं जब भी उनके पास बैठता. जानबूझकर पूछ देता था.
बाबूजी खड़े होकर भिखारी के मंच पर आने और गाने का आंखों देखा हाल इस अंदाज में सुनाते कि स्वयं भिखारी हो जाते थे और मैं चार किलोमीटर दूर से भिखारी की नाच देखने आया दर्शक...!
हां, जिले में हिंसा का इतिहास हो या राजनीति का. समाज सेवा का हो या धर्म का. वो पैंसठ सालों के चलते-फिरते दस्तावेज़ थे. वो दस्तावेज़ जिसको किसी कॉलेज ने नहीं,बल्कि ज़िंदगी ने बैठाकर अपने हाथों से पढ़ाया था.
उनकी आंखें उसी पढ़ाई से चमकती थीं और मुझे बताती थी कि मुझे गांव में किससे सतर्क रहना चाहिए,कौन अपना है,कौन पराया. किसने मेरे बाबा, मेरे परबाबा के साथ कब कैसा व्यवहार किया है. वो कहते कि मैं इसका हिसाब रख लूं. आगे जीवन में बड़ा काम आएगा. लेकिन अफसोस कि मुझे इन गंवई हिसाबों में कभी रुचि उतपन्न नहीं हुई. मेरी रुचि हमेशा बाबूजी को बैठकर सुनने में थी.
अब लगता है गलती किया. इतनी तस्वीरें खींचता हूं मैं. इतने विडियो बनाता हूं. बाबूजी को बोलते हुए क्यों न बना सका ?
वो जब उदास होते तो क्यों न कभी उनको गले लगाकर कह सका कि बाबूजी मैं हूं न, चिंता मत करिएगा.
लेकिन क्या कहूं, मुझे क्या पता था कि इतना जल्दी उनके गोरे रंग,और रौबदार चेहरे में सजे मटके के लंबे कुर्ते,धोती, गमछे और सदरी में लिपटा उनके शानदार व्यक्तित्व हमेशा के लिए चला जाएगा.
उन्होंने मेरा नामकरण किया था. वो मेरे पापा के बड़े भाई थे. उनका नाम रामजी था. पापा का नाम शत्रुघ्न है.
आज हाल ये है कि रामजी के जाने के बाद शत्रुघ्न रो पड़ते हैं.. जब भी घर से फोन आता है, मैं अपने पापा को अपने बड़े भाई के लिए यूं रोता देखकर असहाय सा हो जाता हूं.
हिम्मत नहीं होती घर पर बात करने की. घर को याद करने की, न ही घर जाने की.
सोचता हूं, क्या लेकर जाऊंगा. बाबूजी से क्या कहूंगा. आज तीन महीने से सोच रहा था कि बढ़िया लिट्टी-चोखा खाए कितने दिन हो गए..अबकी गांव जाऊंगा तो बाबूजी से लिट्टी-चोखा लगवाऊंगा. दोस्तों को बुलाऊंगा.
अभी तो बाबूजी के लिए मटके का कुर्ता खरीदना था. एक गाड़ी खरीदनी थी. और न जाने क्या-क्या करना था.
लेकिन कसक यही है कि जब जीवन में पहली बार उनके लिए कुछ करने की हालात में आ रहा था तो बाबूजी अपनी सांसों से जीवन की अंतिम लड़ाई लड़ रहे थे. उनको पता नही था कि मैं क्या करता हूँ. क्या होती है म्यूजिक की पढ़ाई. राइटिंग,नॉवेल! फ़िल्म...
उनको बस इतना पता था कि मैं जो कर रहा हूँ, एक न एक दिन कुछ बड़ा करूंगा... ! और एक दिन लोग उन पर गर्व करेंगे कि आपके भतीजे ने तो गरदा कर दिया रामजी बाबू!
मन उदास हो जाता है ये सब सोचकर... जीवन में इतना भावनात्मक संघर्ष आज तक कभी महसूस नहीं किया है मैने.
बस बाबूजी के सपनों को पूरा करूं... ईश्वर से यही कामना है.
ढ़ेर सारे आंसूओ के साथ..
अतुल.
(अतुल कुमार राय हिंदी के चर्चित लेखकों में से एक हैं. साहित्य और दर्शन में इनकी गहरी रुचि है. जल्द ही उनका पहला उपन्यास चांदपुर की चंदा आने वाला है. यह लेख उनकी फेसबुक वॉल से साभार प्रकाशित किया जा रहा है.)
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