- कबीर संजय
आज का दिन मेरे लिए बेहद खास है. आप लोगों के सामने अपनी भावनाएं साझा करना चाहता हूं. दस साल पहले आज के ही दिन मैंने स्मोकिंग की अपनी लत को अलविदा कह दिया था. ऐसी ही 21 जनवरी की ठंडी सुबह थी, जब मैंने सिगरेट की डिब्बी और लाइटर को डस्टबिन की डिब्बी में डाला और मरकस बाबा की कसम खाकर सिगरेट को बाय-बाय कर दिया.
इस मुंहलगी को छोड़ पाना इतना आसान नहीं
पता था कि इस मुंहलगी को छोड़ पाना इतना आसान नहीं होगा. सिगरेट (cigarette) को लेकर बहुत दिनों तक बहुत रोमांटिक बातें करता रहा था. कई सारे शेर याद कर रखे थे. जब भी कोई सिगरेट की लत पर टोकता था तो उसे फट से वो शेर सुना देता था. आप भी नजर फरमाएं--- पाल ले इक रोग नादां, इस सफर के वास्ते, सिर्फ सेहत के सहारे, जिंदगी कटती नहीं. या फिर इस पर गौर करें---- वो कौन लोग हैं, जिन्हें तौबा करने की मिल गई फुरसत, यहां गुनाह करने को जिंदगी कम है. हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया भी बहुत दिनों तक जिंदगी का फलसफा बना रहा.
सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों के सुधीर कोहली की तरह ही मैं भी जब नई सिगरेट(cigarette) सुलगाता था तो यह बात मन में जरूर सोचता था कि फिर मैंने खुद अपने ताबूत में एक और कील ठोंकी.
हर दिन मैं कम से डेढ़-दो डिब्बी सिगरेट पी जाता था. उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और दिल्ली में मेरा ब्रांड कैप्स्टन सिगरेट था. जबकि, हरियाणा में रेड एंड व्हाइट पीता था. इन दोनों ही ब्रांड को बहुत ज्यादा स्ट्रांग माना जाता है. खैर, इससे भी पहले जब जेब में पैसे नहीं हुआ करते थे तो बीड़ी पिया करता था. दिन में दो-तीन बंडल बीड़ी पी जाना मामूली बात थी. रात में नींद खुल गई, तो बिस्तर पर बैठे-बैठे दो-तीन बीडियां पी जाता था. कई साल ऐसे भी बीतें जब घर के बाहर यानी सार्वजनिक स्थान पर सिगरेट पिया करता था. लेकिन, घर के अंदर बीड़ी पीता था. अपनी गरीबी को ढांकने का यही एक तरीका निकाला हुआ था.
सिगरेट मेरे सामाजिक जीवन को खा रही थी
सिगरेट (cigarette) के धुएं से मेरे होंठ हमेशा काले हुआ करते थे. मेरे चेहरे की स्किन भी जली हुई रहा करती थी और धुआं लगने के चलते आंखें भी लाल हुआ करती थीं. लाइटर की लौ ज्यादा तेज हो जाए तो कई बार मूंछों के बाल भी पिघलकर ऐंठ जाते थे. खैर, शरीर को होने वाले यह सब नुकसान बेहद मामूली थे. इसके बारे में कभी सोचा भी नहीं करता था. लेकिन, सबसे खतरनाक था कि यह सिगरेट मेरे सामाजिक जीवन को खा रही थी. दोस्त और परिवार के लोग कमरे में बैठे होते थे और सिगरेट की तलब मुझे मजबूर करती थी, कमरे से बाहर जाने के लिए.
तमाम बार सिगरेट(cigarette) छोड़ने का प्रयास किया. कई बार तीन-तीन महीने तक छोड़ी रखी. लेकिन, किसी न किसी बहाने वो फिर से लग ही जाती थी. लेकिन, दस साल पहले मैंने इस पर बाकायदा अध्ययन करना शुरू किया कि सिगरेट की लत कैसे छोड़ी जा सकती है. इंटरनेट ने मुझे जो गिफ्ट दिए हैं, यह भी उनमें से एक है. हाउ टू क्विट स्मोकिंग टाइप करते ही हजारो-लाखों आर्टिकल आपके सामने आते हैं. तमाम लोग निकोटिन छोड़ने के अपने अनुभव साझा करते हैं. आप यहां से बहुत कुछ सीख सकते हैं. लेकिन, दरअसल यह सारी मुश्किलें आपको खुद ही पार करनी होती है. आपको खुद ही इसके रास्ते निकालने पड़ते हैं.
मैं हमेशा सोचता हूं कि मैंने अपने जीवन की अंतिम सिगरेट पी ली
मैं प्रवचन नहीं करता. मेरे लिखने का यह मकसद कतई नहीं है कि जो लोग स्मोकिंग करते हैं, वे तत्काल इसे छोड़ दें. लेकिन, मुझे लगता है कि उन्हें अपने सामाजिक और पारिवारिक जीवन के बारे में विचार करना चाहिए. कहीं ऐसा तो नहीं है कि सिगरेट उनके सामाजिक-पारिवारिक जीवन को नष्ट कर रही हो.
तो कुल मिलाकर यह है कि मुझे तौबा करने की फुरसत मिल गई. मैंने तौबा कर ली. मेरा रास्ता क्या रहा, इसके बारे में आप मुझसे जान सकते हैं. मैं हमेशा सोचता हूं कि मैंने अपने जीवन की अंतिम सिगरेट पी ली. लेकिन, आज भी मुझे कई बार सपने में सिगरेट (cigarette) दिखती है.
सपने में मैं देखता हूं कि मैंने सिगरेट पी ली है. इस सिगरेट पीने को लेकर मैं अफसोस से भरा रहता हूं. सपने में ही सोचता हूं कि मेरी सारी मेहनत व्यर्थ हो गई.
जब नींद खुलती है तो इसे एक बुरा सपना समझकर भूल जाता हूं. आप देख सकते हैं कि बुरे सपने के भी सबके अलग-अलग स्तर होते हैं. मैं जानता हूं कि यह लत फिर लग सकती है. लेकिन, दस साल पूरा होने पर कम से कम अपनी पीठ तो थपथपाई ही जा सकती है.
कबीर संजय पर्यावरणविद् हैं. लेखक हैं. यह पोस्ट उन्होंने अपनी सिगरेट छोड़ने की कहानी पर लिखा है.
(यहां दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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