दर्द के साथ जीती औरतें .दर्द के साथ मर जाती औरतें .मगर उन्होंने दर्द को साझा करना नहीं जाना .साझा करतीं भी तो कैसे? उन्हें बचपन से यही तो समझाया गया कि इस दर्द से समझौता ही औरतों की नियति है .
मन भर का पत्थर पड़ा रहे भले सिर पर, मत कहो कि दर्द में हो
स्कूल जाओ तो इतना सम्भल कर की स्कर्ट पर पीरियड्स के दाग़ न लगे. पता न चले घर में पिता को कि उनकी बेटी बड़ी हो गई है .पता न लगे उनके जवान भाइयों को उनकी बहन भी जवान हो रही है .दर्द में रहो मगर रोटियां गर्म ही परोसी जाएं सबकी थालियों में .दर्द में रहो मगर मत कहो मामी काकी को इस बारे में .उनकी हलकी हलकी मुस्कानों में दर्द कहीं और गहरा होता जाएगा .
कमर, पीठ, टांग ऐंठे. मन भर का पत्थर पड़ा रहे भले सिर पर, मत कहो कि दर्द में हो .अरे हॉर्मोनल चेंज है सब .हॉट वाटर बैग ले लो या गरम तौलिया लपेट लो .
तुम बस उतना ही नॉर्मल रहो जितने नॉर्मल होते हैं दिन और रात
जो भी करो, सबको नॉर्मल दिखो .तुम बस उतना ही नॉर्मल रहो जितने नॉर्मल होते हैं दिन और रात. हर काम हो कायदे से, तमीज से, अपनी रूटीन पर, तयशुदा वक़्त पर .उतना ही नॉर्मल की फोन पर तुम्हारी आवाज़ नहीं टूटे, नहीं बिखरे तुम्हारी खिल-खिल हंसी. पड़ोसियों को नहीं दिखे तुम्हारे चेहरे पर थकान की परत.औरतों ने ही कहा औरतों से, “लड़की से औरत बनना और एक औरत का माँ बनना सौभाग्य है और दर्द इस नेमत की क़ीमत है.”
कितने बच्चों ने कहा, जानते हो मेरी मां कौन है?
शरीर फाड़ो, बच्चे पैदा करो और वारिस को दे दो उसके कुल खानदान की गोद में. बच्चे भी गर्व से कहते फिरते कि तुमको पता है न मेरा बाप कौन है? कितनों ने कहा होगा कि पता है तुमको मेरी मां कौन है!
कंडीशनिंग हमारी ऐसी कि हम सब कुछ देख सुन समझ कर भी खुश रहते हैं क्योंकि हमने सारे दर्द को कलेज़े में रखकर पत्थर बना दिया है .हमें दर्द नहीं होता अब कभी. सब्जी काटते वक़्त उंगलियों के कटने पर दर्द नहीं होता, बाथरूम धोते गिरें तो दर्द नहीं होता, प्रेस करते हुए जलें तो दर्द नहीं होता.
आते जाते पलंग या दरवाजे से टकरा जाएं पर हमें दर्द नहीं होता. आपके तंज से भी नहीं होता. आसपास के लोगों के रंज से भी नहीं होता. हमारे पास एक डिब्बा होता है छोटा सा जिसका पता आपको भी पता नहीं होता. उसमें होती हैं बरनॉल, झंडू बाम, मूव, क्रोसिन, और पेन किलर. हमारे पास होती है एक डायरी, इसका पता भी आपको नहीं पता होता. इसमें होते हैं हम और हमारा मन और ये दोनों चीज़ें बेपता होती हैं उस घर में जिसका पता आपके नाम से है.
दरअसल बेपता तो हम भी होते हैं जनाब और बेपते के ही होते हैं हमारे दर्द भी. दुनिया भर की औरतें हमेशा से अपने दर्द को ऐसे ही सलीके से मुस्कानों का लबादा ओढ़ाते आई हैं, छिपाते आई हैं दवा के डब्बों में, दबाती आई हैं डायरी के पन्नों में. आप समझते हैं कि यह घर समाज दुनिया आपके दम से चल रही है, जिस दिन उन्होंने अपने दर्द को बुहारकर आपके सामने रख दिया, यकीन कीजिये आप भरभराकर गिर पड़ेंगे .
स्मिता सिन्हा कवि हैं. हाउस वाइफ हैं. कविता उनके दैनंदिनी क हिस्सा उस तरह ही है जैसे उनके हाथों से बना रसपूर्ण व्यंजन.
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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