किसी विक्टिम को आप कैसे याद दिलाएंगे कि वह विक्टिम है? कैसे आप मानेंगे कि कोई 35 साल बाद भी मुँह खोलकर कह रहा है कि उसके साथ यौन शोषण की घटना हुई है तो यह वाकई बहादुरी और साहस का काम है? कैसे समझेंगे कि ये जो me too का बड़ा सा आंदोलन दुनिया भर में उठ खड़ा हुआ वह दुनिया भर की स्त्रियों की जज़्ब की गई सामूहिक पीड़ा का एक उबाल भर था. वास्तव में सच खबरों और फिक्शन से ज्यादा घिनौना और भयावह है.
हॉट स्टार पर यूँ ही एक फ़िल्म का सजेशन आया और मैंने वह फ़िल्म देख ली. दरअसल फ़िल्म नहीं देखनी थी पर फ़िल्म ऐसी बनी है और उसका फिल्मांकन इस तरीके का है कि देखे बिना रहा नहीं गया पर इसका असर बहुत दिनों तक रहेगा. फ़िल्म है 2018 में रिलीज हुई द टेल/The Tale
दरसअल वह एक कहानी या कोई खास कहानी नहीं है. वह एक की होकर भी कई लोगों की कहानी है, कई सदियों और सीमाओं से पार औरतों की कहानी है. यह सुखद नहीं है कि एक ऐसी फिल्म से दुनिया भर की तमाम औरतें रिलेट करें, यह और भी बुरा है कि हम कहानी को अपने आसपास घटित होते हुए महसूस करें. कहानी तो मैं कभी नहीं बताती, आप भी देखते हुए नायिका के साथ कहानी के विकास को समझें तो अच्छा है. कहानी में जो बताने लायक है वह तो इंट्रो में ही कह दिया जाता है.
बनाने वाली की अपनी कहानी, अपनी सी कहानी
वह यही कि आप देखते हुए बस थोड़ी देर में समझ जायेंगे कि यह फ़िल्म चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज के ऊपर है और बनाने वाली है जेनिफ़र फॉक्स, मूल किरदार का नाम भी यही है- जेनिफर फॉक्स. स्क्रीनप्ले भी उन्हीं का है और कहीं न कहीं यह कह भी दिया गया है कि यह उनके निजी अनुभवों की फ़िल्म है. नहीं अनुभव नहीं कहेंगे, कहेंगे बचपन में हुए उनके अपने यौन शोषण की घटना पर उनके द्वारा ही बनाई हुई फ़िल्म है.
फ़िल्म का मूल किरदार उम्र के चौथे दशक के भी आखिरी हिस्से में है जब उसे बचपन में 13 या 14 साल की उम्र में लिखी कहानी अपनी माँ की मार्फत मिलती है. उसके दिमाग में अपनी उम्र कुछ अधिक ही होती है पर बाकी साथियों और मां के याद दिलाने पर जेनिफर 13 साल की जेनी को याद करती है. फिर कहानी वर्तमान और पैंतीस साल पीछे के वक़्त में आवाजाही करती है.
48 साल की एक औरत जो डॉक्यूमेंट्री बनाती है और यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर है वह अपने व्यक्तिगत जीवन में इस कदर उलझी हुई है कि कई सालों के संबंध के बाद जब पार्टनर एक रिंग लेकर आता है तो वह टेबल पर बिना खोले रखी रहती है. उसकी माँ के शब्दों में जाने कितनों से और कैसों से उसके संबंध बने. उसके द्वारा इंटीमिडेट कर दिए जाने पर भी जब एक युवा विद्यार्थी अपने पहले सेक्सुअल एनकाउंटर के बारे में बताती है कि 17 साल की उम्र में अपने हमउम्र साथी के साथ उस अनुभव में झिझक, अटपटापन होते हुए भी एक छोटा ऑर्गेज़्म भी रहा तो वह मानो विस्फारित सी उसे देखती है. अपने बनाए डॉक्यूमेंट्री के दृश्यों में चली जाती है जहाँ ऐसे लोग जो बचपन में सेक्सुअल एब्यूज़ के शिकार रहे उनके बाद में भी अपने शरीर और उससे जुड़े हुए आनंद के अनुभवों से सहज नाता नहीं बनता है.
अनुभूति ‘द टेल’ देखते हुए
फ़िल्म वाकई आपके मन मिजाज को भारीपन और उदासी से भर देती है पर किसने कहा कि कला का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन है. फिल्म आपको विचलित करती है लेकिन साथ ही सोचने पर मजबूर कि क्या बच्चों के साथ जो यौन शोषण की घटनाएं होती हैं उसमें समाज की उपेक्षा परिवार की संरचना और बड़ों का रवैया जिम्मेदार नहीं? एक उम्र में जब अपने ही शरीर के प्रति उत्सुकता जगने लगती है, जब स्पर्श थोड़े से गुदगुदाने वाले और थोड़े-थोड़े सिहरन पैदा करने वाले होते हैं, उन दिनों जब आनंद का अर्थ ठीक-ठीक पता नहीं होता है लेकिन उसका स्वाद तालु के भीतर घुलने लगता है. साथ ही आनंद के उन क्षणों से किसी किस्म की चोरी और ग्लानि का बोध भी जुड़ा होता है. उन दिनों जब कोई बड़ा आपके साथ जब इस खेल को खेले जिसे भले ही प्यार का नाम दिया जाए तो दिक्कत है. 12-13 साल के बच्चे की क्या बात करें 17-18 साल के किशोर के साथ भी कोई वयस्क ऐसा करता है जिसे प्रेम या सेक्स कहा जाए वह वास्तव में एब्यूज ही है. लेकिन सवाल यही है कि कई बार शिकारी अपने शिकार के शरीर से ही नहीं दिमाग से भी खिलवाड़ करता है उसमें उसे यह भ्रम हो जाता है कि वह कुछ स्पेशल है उनके बीच, सारी दुनिया से अलहदा, खास. वाकई इस तरह का दिमागी कब्ज़ा कि हम विक्टिम हैं इस बात तक पहुँचने में भी वक़्त लग जाता है.
एब्यूज़ का चक्र
जेनी की कहानी में कुछ खास टर्म्स आए हैं- ईमानदारी, हमारे बीच, स्पेशल, खास. इस शब्दों से बहला कर कोई कैसे बरसों इस तरह के एब्यूज को छिपा सकता है इसे देखने का मन हो तो फ़िल्म जरूर देखिए. जेनी की मां उससे पूछती है ऐसा होने के बावजूद तुम बार-बार लौटकर वहां क्यों जाती थी? तुमने हमें क्यों नहीं बताया? क्यों नहीं तुमने कुछ कहा? तुम लौट-लौट कर उन लोगों के बीच क्यों जाती रही? जेनी का उत्तर तो आपको फ़िल्म में मिल जाएगा पर आप भी सोचिए ऐसा क्यों होता है कि बच्चे अपने एब्यूज़र के पास लौट कर जाते हैं? क्यों एबुज़र उनको सेफ फील करवा देते हैं पर हम जैसे समझदार बड़े नहीं?
फ़िल्म के बहाने खुलते अपनी असल ज़िन्दगी के पन्ने
फिल्मों की यही खास बात होती है कि वह आपको अपने परिवेश में ले जाती हैं. लेकिन यह फ़िल्म मुझे मेरे बचपन के जिन धुँधली अंधेरी यादों में ले गई उनतक मैं नहीं जाना चाहती थी. मैं एक बेहद ऑब्ज़र्वेंट और दृश्यों को याद रख लेने वाली बच्ची थी. फ़िल्म के बाद मुझे जाने कितने किस्से पुराने पन्नों की तरह याद आ गए. उन लड़कियों के चेहरों के साथ जिन्होंने इसे झेला होगा. उनमें किसी की जल्द शादी करा दी गई, किसी का गर्भपात करवाया गया किसी को किसी रिश्तेदारी में भेज दिया गया. सोचती हूँ तो लगता है आज भी वे लड़कियाँ अपने आसपड़ोस की कथाओं में एक बुरा उदाहरण, एक कथा एक खुसफुस भर होंगी. उम्र के इस पडाव पर भी उनको यह अहसास नहीं हुआ होगा कि उनके घर में रहने वाले किसी प्रोफेसर/मास्टर, पड़ोस के चाचा, बहन/मौसी/फुआ के देवर जैसे किसी ने उनका शोषण किया. वे सोचती होंगी कच्ची उम्र का प्यार रहा, उनकी गलती रही. इस पर्देदारी ने हमारे समाज में विक्टिम की समझ कितनी बदल दी है न?
(सुदीप्ति के फ़ेसबुक वॉल से)
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