जब रास्ता पीछे छूट रहा होता है तब धुंधला हो जाता है.अगला मोड़ मुड़ जाने पर ये भी नहीं दिखेगा तो छूटते हुए को जान भर देखती हूँ. बिछड़ गए को मन ही मन याद कर दुआ करती हूं सब ठीक रहेंगे और फिर मिलेंगे. रास्ते के सभी मंदिर को हिदायत देती हूं कि पीछे जो रह गए सबको ठीक रखियेगा.
हनुमान मंदिर आते-आते एक दोस्ताना शिकायत करती हूं, "यार जल्दी-जल्दी बुलाया करो" आवाजों के शोर से सबकी आवाज को अलग अलग कर मन ही मन सुनती हूं.
ज़िन्दगी में ज़्यादा यात्राएँ नहीं की है मैंने
"बुआ जल्दी आना कबीर मठ जाना है न!” जबकि ज़िन्दगी में मैंने ज्यादा यात्रा नहीं की, इस कारण बनारस-मुम्बई, मुम्बई-बनारस ही तमाम किस्सों की तरह मुझे जिंदा रखता है.
उन जगहों में हम सबसे कम क्यों जाते हैं जहां सबसे ज़्यादा ज़िन्दगी होती है. आज भी उधर जाने की टिकट वो जादुई दरी है जिस पर बैठ मैं गली मोहल्लों को उचक-उचक पहचान लेती हूं और लौटती टिकट जैसे कोई हथकड़ी जो लड़की होने के जुर्म में वापस लोकल थाने में घसीट लाता है. मोह व्यवहारिक नहीं रहने देता.मन सही वाली बात समझ कर भी कुछ काल्पनिक झूलों का हो जाता है.
महावर के कलात्मक डिजाइन में नन्ही-नन्ही चिड़िया है
महावर के कलात्मक डिजाइन में नन्ही-नन्ही चिड़िया है जो पानी के सम्पर्क में आते बुझ जाती है. एड़ी में दरार हो तो रंग लुक छिप कर कुछ ज्यादा हफ्ते बना रहता है. जबकि अब कोई ऐसा नहीं कि बातें नोटिस करे पर एकदम से कोई बोल दे कि "क्या यार मायके गई थी" मन मगन होने लगता. हर-हर महादेव वाले बाबा के बड़े बहुत आलीशान प्रांगण को देख मैं उन गलियों को चुम्बन भेजती हूं, जिससे होकर हजार रास्ते बाबा तक जाते थे वो गलियाँ हमारी पुरानी यादों का खंडहर हो गईं हैं. जैसा भी हो, पीले बोर्ड में वाराणसी जंक्शन देखते मन मिट्टी में लोटाने का करता है. हजार-हजार मंत्रों से भींगते सुबह वाले घाट मुझे याद रखना. इन्हीं सीढ़ियों से भागती हुई जय माँ कहती फिर मिलूंगी. इसी गंगा में अम्मा का होना भी तो घुला है ...
(शैलजा पाठक के फ़ेसबुक वॉल से)
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