बच्चे को जन्म देना एक बायोलॉजिकल प्रोसेस है. प्रकृति ने मादाओं को बनाया ही इस तरह है. इसलिये मातृत्व का अनावश्यक ग्लोरिफिकेशन बन्द हो. मातृत्व वॉल्युन्ट्री और ऑप्शनल हो तो बात बने. स्त्री को अधिकार हो कि कब, कितने और किसके साथ सन्तान चाहती है और चाहती भी है या नहीं. जो बच्चे को जन्म नहीं देतीं, चाहे किसी भी कारण से, वे अधूरी या अपूर्ण नहीं हैं. बच्चों के जन्मदिन से लेकर मदर्स डे तक पर पढ़ती हूँ कि महिलाएं लिखती हैं, तुमने मुझे सम्पूर्ण किया मेरे बच्चे! उनकी भी ग़लती नहीं है. यह भी कंडीशनिंग ही है जिसकी वजह से निःसन्तानों के प्रति हद दर्जा क्रूर और असंवेदनशील है समाज.
याद रखिये, जिनकी सन्तान नहीं है, ज़रूरी नहीं किसी 'कमी' के चलते नहीं है, उनकी मर्ज़ी भी हो सकती है,और न भी हो, चाहते भी हों तो ये उनका नितांत निजी मामला है इसलिए जब तक पूछा न जाए तो कोई चिकित्सा सलाह, इनफर्टिलिटी सेंटर्स का पता, नुस्खे, टोटके न दें शुभचिंतक बनकर, न ही बच्चा गोद लेने की सलाह. इतने बड़े और मैच्योर हो ही जाना सबको अब. जैसे कि ख़ुशखबरी कब सुना रहे हो, एनी गुड न्यूज़, कब तक फैमिली प्लानिंग चलती रहेगी टाइप सवाल मेरे ख़याल से अब हमसे जस्ट पहले वाली जनरेशन तक सिमट गए हैं. हम लोग नहीं ही करते हैं. सारी ख़ुशख़बरियां सिर्फ़ कोख में नहीं पलतीं, यह समझ चुके हैं.
ज़रूरी नहीं जिनके बच्चे हों, परिवार हो, वही लविंग केयरिंग होगा
कई दोस्तों से भी मेरी हर बार इस बात पर बहस हुई है कि “जो ख़ुद बे-औलाद हैं, वे किसी की औलाद का दर्द क्या समझेंगे.” बाक़ी सब बातों पर विरोध, असहमतियां अपनी जगह लेकिन यह एकदम इनसेंसिटिव बात है. ज़रूरी नहीं जिनके बच्चे हों, परिवार हो, वही लविंग केयरिंग होगा एन्ड वाइस वर्सा. ममत्व और मातृत्व उनमें भी कहीं ज़्यादा हो सकता है जिन्होंने अपने गर्भ में नहीं पाला शिशु को पर मन में पाला है. या जो न जन्म देना, न पालना चाहती हैं, उनमें भावनाएं नहीं होंगी. इसे नॉर्मलाइज़ करने की ज़रूरत है.
और हाँ, माँ थकती है, बहुत थकती है. माथे, चेहरे से लेकर तन-मन पर सिलवटें पड़ती हैं. जो आप जान-बूझकर नज़र-अंदाज़ करते हैं. ख़ासकर नई माँओं को भरपूर नींद, पोषण और आराम चाहिये होता है शरीर और मन को हील होने और नई ज़िम्मेदारियों में ख़ुद को ढालने के लिए. उनका पूरा सपोर्ट कीजिये.
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युवा होते बच्चों की माँओं को इमोशनल सपोर्ट की ज़रूरत अधिक होती है
युवा होते बच्चों की माँओं को इमोशनल सपोर्ट की ज़रूरत अधिक होती है, उनके मन में एक तरह से उपेक्षित होने का भाव आ जाता है, जब लगता है आत्मनिर्भर बच्चों को उनकी ज़रूरत नहीं अब. स्पेस और प्राइवेसी के नाम पर जब झिड़की मिलती है, उनकी बच्चों के प्रति प्रोटेक्टिव होने की नैचुरल अर्ज को रोक-टोक मानकर झिड़का जाता है, मन में बहुत कुछ टूट जाता है. उनसे प्यार से बात कर लेने पर ही निहाल हो जाती हैं. बड़े-छोटे मामलों में सलाह लेने से खिल जाती हैं.
बाक़ी जब हम ख़ुद पेरेंट्स बनते हैं, अपने-आप अपने पेरेंट्स को समझने लगते हैं और ज़्यादा अटैच्ड होते जाते हैं.
मातृत्व उतार-चढ़ाव वाली चुनौतीपूर्ण, रोमांचक, साहसिक और प्रेम और संतोष से परिपूर्ण यात्रा है. हैप्पी जर्नी. हैप्पी मदर्स डे...
(नाज़िया बेहद समर्थ रचनाकार हैं. आयुर्वेद डॉक्टर हैं. भोपाल में अपने मरीज़ों की बीमारियों का पता रखने के साथ-साथ नाज़िया दीन-दुनिया की जानकारी भी ख़ूब रखती हैं. यह उनकी फ़ेसबुक वॉल से लिया हुआ है. )
(यहां दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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