मुझे हमेशा लगता कि बुआ ‘काली चाय’ पीती हैं, इसलिए वे काली हैं और शरीर का रंग काला होना बहुत ख़राब बात होती है.
आज उम्र के इस पड़ाव पर खड़ी पीछे मुड़कर देखती हूं तो लगता है काश कि वह बचपन (किशोरवय) भी आज जितना संजीदा रहा होता पर जो संजीदा हो जाए वह बचपन ही कैसा!
हर शाम बुआ हमारे घर आतीं और उनके लिए ‘काली चाय’ बनाई जाती. सबको चाय दे देने के बाद जब मुझे उनके लिए अलग से चाय बनानी पड़ती तो मुझे बहुत गुस्सा आता. बुआ यही दूध वाली चाय क्यों नहीं पी लेतीं जो सब पीते हैं, मैं सोचती और गुस्से में उनके लिए चाय बनाती.कई बार गुस्से में चायपत्ती ज़्यादा हो जाती या कर दी जाती तो बुआ कहतीं कि चाय कड़वी हो गई है ज़्यादा. यह कहते हुए वही चाय पी भी लेतीं.
बुआ हमारे घर के लिए मेहमान नहीं थीं क्योंकि वे रोज़ ही घर आती थीं, इसलिए किसी विशेष तवज़्ज़ो की न उन्हें ख्वाहिश होती, न ही उन्हें वह मिलती.
क्या थी बुआ के प्रति विशेष नकार की वजह
आज जब सोचती हूं तो लगता है कि बचपन में बुआ के प्रति एक विशेष प्रकार का नकार होने की वजह दरअसल कुछ और ही थी. अपने ही स्कूल के शिक्षकों के लिए पीअन का काम करती बुआ को देख सामंती और जातिवादी पदानुक्रम से भरे समाज में बड़ा हो रहा मेरा बालमन क्षोभ से भर जाता. मुझे लगता कि यह बहुत छोटा काम है और मेरी किसी दोस्त को यह पता न चले कि सुदामा दाई मेरी बुआ हैं.
आज की समझ के हिसाब से कहूं तो दरअसल यही वह तबका है जिसके कन्धों पर इस समाज की तमाम आदर्शवादी मेहराबें खड़ी की जाती हैं और उन मेहराबों से यही तबका शातिराना तरीक़े से ग़ायब कर दिया जाता है.
खैर, फिर से बचपन की गलियों में मुड़ती हूं तो स्कूल के सांस्कृतिक समारोहों के लिए मुझे डांस या गाने की प्रैक्टिस करते देखती बुआ की छोटी-छोटी पनीली आंखें मेरे सामने साकार हो जाती हैं. उन दिनों मैं सोचती कि कहीं मेरी नज़र न मिल जाए इनसे. कहीं मुझसे कुछ कह न बैठें ये. कहीं सबको पता न चल जाए कि ये मेरी बुआ हैं.
जिस रोज़ स्कूल के वार्षिक समारोह में मुझे कक्षा में प्रथम स्थान लाने का पुरस्कार मिल रहा होता था यक़ीनन बुआ कहीं पीछे खड़ी मुझे देख मुस्कुराती और ख़ुश होती होंगी लेकिन जब वह मेरे घर आकर यह बोलतीं कि प्रिंसिपल कह रहे थे, तुम्हारी भतीजी तेज़ है पढ़ने में.अव्वल आई है, तो मैं सोचती कि प्रिंसिपल को भी पता है कि ये मेरी बुआ हैं!
मेरा विशिष्टता बोध और बुआ के प्रति क्रोध
पढ़ने में 'अच्छा' होने के विशिष्टता बोध और काम के छोटे और बड़े होने की अवधारणा से भरा मेरा बाल मन कभी यह समझ ही न पाया कि आख़िर बुआ के मेरे स्कूल में पीअन होने और अपने घर को चलाने के एकमात्र आर्थिक स्रोत बन जाने के मायने क्या रहे होंगे? खुद उनके लिए और उनके परिवार के लिए भी.
आज मैं पूरे भरोसे और आत्मविश्वास के साथ कह सकती हूं कि मुझे नाज़ है आप पर बुआ!
जिस समाज में सामंती पुरूषवाद, स्त्री से उसके तमाम हक़ छीन कर उसे ‘अबला’ बना देने की साजिशें करता है, उसी समाज की सामंती नाक के नीचे एक ‘पटवारी’ की बीवी होते हुए आपने इन संकीर्णताओं से न सिर्फ़ खुद को मुक्त किया बल्कि आर्थिक परेशानियों से घिरे अपने परिवार, ख़ासतौर से बेटियों के लिए इससे मुक्ति की राह बनाई. आज आपकी बेटियां वैसे ही किसी स्कूल में प्रिंसिपल या सीनियर टीचर हैं जहां से आपने अपना संघर्ष शुरू किया था.
बुआ! आप दुनिया की सबसे ताक़तवर महिलाओं में से एक हैं मेरे लिए
ज़ाहिर है यह राह आसान नहीं रही होगी आपके लिए. न जाने कितने ताने, तिरस्कार, अपमान और वंचना का घूंट पीकर आप सिरजती रहीं होंगी नई पीढ़ी को. आज आप नहीं हैं उन संघर्षों पर बात करने के लिए लेकिन मैं समझती हूं और शायद दुनिया की हर संघर्षरत औरत समझती है कि उसके जीवन का संघर्ष दोहरा क्यों हो जाता है इस व्यवस्था में!
आपके होते आपका होना मैं समझ न पाई पर आज इस राइट-अप के माध्यम से आपसे कहना चाहती हूं कि आज मुझे पता है कि ‘काली चाय’ पीने, शरीर का रंग काला होने और किसी स्कूल के पीअन होने के असल मायने क्या हैं!!
बुआ! आप दुनिया की सबसे ताक़तवर महिलाओं में से एक हैं मेरे लिए. हर वह महिला है, जो लड़ती है अपने जीवन की तकलीफ़ों से.जो हार नहीं मानती. आप हमेशा ताक़त के पर्याय के रूप में याद रहेंगी मुझे.
(विभावरी प्राध्यापक हैं. सामाजिक मुद्दों पर मुखर हैं. विभावरी को स्त्री अधिकारों में जागरुकता लाने के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए.)
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
Tourism : ग्वालियर के पास है वह मंदिर जिसे भूतों ने बनाया था
Indian Foods: 'चाउर भाजा' बस्तर की देशी बिरयानी
- Log in to post comments