अब भी आती है तिरी याद प इस कर्ब के साथ
टूटती नींद में जैसे कोई सपना देखा...
कहते हैं हर रोज हज़ारों लड़कियां हीरोइन बनने का सपना लिये मुंबई प्लेटफॉर्म पर उतरती हैं. उनमें से ज्यादातर भागी या भगाई गई होती हैं. ऐसी ही सपने से भरी मदहोश आंखें और बेदाग़ मासूमियत लेकर एक दिन काठियावाड़ की षोडशी गंगा उतरी थी इस प्लेटफॉर्म पर जिसे उसके बैरिस्टर पिता का अकाउंटेंट रमणीक लाल भगा लाया है. देव आनंद की हीरोइन बनने के सपने में खोई गंगा महज एक हज़ार रुपये में कमाठीपुरा की वेश्या गंगूबाई बन जाती है और उसकी पलकों के कोरों पर जुगनू की तरह झिलमिलाते उस सपने की तासीर बदल जाती है. वह सपना अब महज गंगूबाई का नहीं रहता बल्कि कमाठीपुरा की हज़ारों औरतों की बेहतर ज़िन्दगी का सपना बन जाता है.
संजय लीला भंसाली अब शोमैन की पदवी हासिल कर चुके हैं
संजय लीला भंसाली की ख़ासियत है कि वे अब शोमैन की पदवी हासिल कर चुके हैं. फ़िल्म के हर फ्रेम में उनकी छाया स्पष्ट है तभी तो कोठे बड़ी आलीशान कोठियों में बदल जाते हैं और बदबूदार सीलन से भरी सड़ी हुई गलियां हज़ारों बल्बों की रोशनी से जगमगाते सेट में. इसे बायोपिक की तरह न देखकर भंसाली की टिपिकल मुम्बइया फ़िल्म की तरह देखेंगे तो पूरे नम्बर देंगे. पर अगर कमाठीपुरा की सोशल वर्कर गंगूबाई काठियावाड़ी की बायोपिक की तरह देखेंगे तो कई जगह फ़िल्म चूकती है. दो चार सीन छोड़ दिये जाएं तो उन औरतों को इतना खुश और मस्ती करते दिखाया है कि आपको लगने लगेगा कि वह दुःख, पीड़ा और चीखें कहां है जो इस मनहूस जगह की हवा में ऑक्सीजन की तरह घुली हुई है जिसके बिना यहां जीवन की कल्पना भी दुश्वार है. कहते हैं वहां हर घर में गंगूबाई काठियावाड़ी की तस्वीर टंगी है जिसने अपना जीवन उन अँधेरों में गर्क औरतों के जीवन में उजाला भरने के लिये लगा दिया... उस महिला के बारे में सबको जानना चाहिये जो सेक्सवर्कर्स के हक़ और इंसाफ़ के लिये प्रधानमंत्री नेहरू जी तक पहुंच गई थी.
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वैसे इतनी लंबी फ़िल्म होने के बावजूद गंगा के गंगूबाई बनने के सफर में कई जगह लोचा है. मसलन गंगू का शीला बाई पर हावी हो जाना अचानक तो नहीं हुआ होगा. ये ठीक है उसे रहीम लाला का साथ समर्थन मिला पर उसके नेतृत्व की ताक़त हासिल कर लेने रास्ते में भी कई पड़ाव आए होंगे, दर्शक वह जानना चाहता है. कई जगह स्किप हुआ लगा जैसे किताब पढ़ते हुए हवा से कई पेज पलट जाएं और आप कहानी में तारतम्य ढूंढते रह जाएं. मसलन फ़िल्म में उसे माफ़िया क्वीन में बदलकर रहीम लाला का शराब का धंधा संभालने का सांकेतिक वर्णन है पर दृश्य मिसिंग हैं.
आलिया भंसाली को पीछे छोड़ गई
अब बात होती है किरदारों की तो क्या कहा जाए. अगर कहें कि आलिया भट्ट खूब जमीं तो ये गंगूबाई के किरदार के साथ नाइंसाफ़ी होगी और अगर कहें कि चूक गईं तो ये आलिया के साथ नाइंसाफ़ी होगी. दरअसल दीपिका की तरह आलिया भी निर्देशक की हीरोइन हैं और राजी की तरह यहां भी वे अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ भूमिका निभाती नज़र आई. अपनी दमदार सेल्फलेस परफॉर्मेंस, गज़ब बॉडी लैंग्वेज और शानदार डायलॉग डिलीवरी से उन्होंने गंगूबाई के किरदार को पर्दे पर शतप्रतिशत साकार कर दिया पर उनकी कदकाठी और चेहरे की मासूमियत भरी खूबसूरती मन के किसी कोने में एक खलिश जगाती रही कि उनकी जगह अगर विद्या बालन रही होतीं तो? मतलब फ़िल्म की सबसे बड़ी खूबी और कमी दोनों जगह आलिया ही नज़र आती हैं. इसके बावजूद कई एक दृश्य में आलिया भंसाली को पीछे छोड़ गई. मसलन वह दृश्य जब वह कार में बैठी शांतनु का हाथ पकड़कर अपने सिर पर फिराती हैं.
जैसा कि मैंने कहा कि इसे बायोपिक की तरह न देखें और फ़िल्म की तरह देखेंगे तो फ़िल्म में बांधकर रखने की पूरी क्षमता है. अजय देवगन इससे पहले कई बार अंडरवर्ल्ड डॉन की भूमिका बखूबी निभा चुके हैं. उनके पास करने को कुछ नया नहीं था पर वे जमे रहे और उन्हें कुछ शानदार डायलॉग मिले. विजय राज ने ट्रांसजेंडर के किरदार में जान फूंक दी. जिम सर्भ मुझे वेस्ट हुए लगे. उस बन्दे में इतना पोटेंशियल है कि साधारण कैमियो से बढ़कर उन्हें कुछ मिलना चाहिये. शांतनु हमेशा की तरह बहुत क्यूट लगे. ये क्यूट वाली इमेज उनपर चिपक गई है पर अपनी डेब्यू फिल्म में कुछेक प्रेम दृश्यों में उन्होंने भावभंगिमाओं से बेहतर खेला. सीमा पाहवा मंझी हुई अदाकारा हैं, टिपिकल 'मैडम' के किरदार को निभा ले गईं. आलिया की फ़िल्म थी तो बाकी सहयोगी किरदारों में एक भी लड़की का चेहरा याद रह जाने लायक नहीं था पर एक्टिंग फ़िल्म और परिवेश के मुताबिक़ सबकी उम्दा रही.
भंसाली फ़िल्म की खूबी की तरह फ़िल्म का संगीत बहुत ही शानदार था. जहां हर ओर ढोलीड़ा की धूम मची है मेरे कानों में बस मेरे सैयां गूंज रहा है. डायलॉग इतने शानदार हैं कि हर दो मिनट में आलिया गुगली फेंक रही थीं. गंगूबाई के नवीं पास किरदार पर कई जगह डायलॉग राइटर की बौद्धिकता को हावी होते पाया पर यही डायलॉग फ़िल्म की जान हैं. इस बात की तारीफ़ करनी होगी कि पूरी फिल्म का सब्जेक्ट इतना बोल्ड होते हुए भी न तो बेजा अश्लीलता हैं न ही वीभत्सता. ईमानदारी से कहा जाए तो उम्मीद नहीं थी कि कमाठीपुरा इतना धवल और साफ सुथरा मिलेगा. गंगूबाई से एक बार जरूर मिलिये फ़िल्म के तौर पर निराश नहीं होंगे.
(अंजू शर्मा मंझी हुई लेखिका और बेहद अच्छी कवि हैं. यह पोस्ट उनके फेसबुक वॉल से लिया हुआ है.)
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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