यह मानव का सहज स्वभाव है कि जब भी वह कोई चीज पहली बार देखता-सुनता है, या कोई सुखद घटना जब उसके साथ पहली बार घटित होती है तो उसकी जिज्ञासा-रोमांच उफान पर पहुंच जाता है. वह बेहद आनंददायक हैरानी के साथ उन चीजों का उपभोग करता है, महसूस करता है. वह भी इतनी गहराई के साथ कि वे पल सदा के लिए स्मृति-जहन में बस जाते हैं. यह बात आम जीवन, नए आविष्कार से लेकर सिनेमा पर भी लागू होती है.
क्या रही होगी लोगों की प्रतिक्रिया
जब भारत में पहली मूक फिल्म, पहली बोलती फिल्म और पहली रंगीन फिल्म आई थीं, तो उक्त बातों को ध्यान में रखते हुए तत्कालीन दर्शकों की प्रतिक्रियाओं का अनुमान लगा सकते हैं. समझ सकते हैं कि तब-तब कैसे एक नई लहर-जैसी चली होगी.
ऐसे ही जब-जब किसी फिल्म के विषय, उसकी प्रस्तुतिकरण इत्यादि में कोई अनोखापन देखने को मिला, तब-तब भी दर्शकगण उक्त भावनाओं से गुजरे. कई फिल्मों ने एक नया ट्रेंड ही स्थापित कर दिया, उस समय के बाद कई सालों तक उस ट्रेंड के पीछे फिल्म इंडस्ट्री भागती रही.
यह भी तो मानवजनित स्वभाव ही है कि नया प्रयोग करने का जोखिम उठाने का साहस किसी में नहीं होता है पर जब कोई उठा लेता है और वह जबरदस्त तरीके से कामयाबी-शोहरत की बुलंदी पर भी पहुंच जाता है तो बाकियों की भी हिम्मत बढ़ जाती है. वे भी उस रास्ते पर आत्मविश्वास के साथ चलते हुए कड़ी मेहनत करने लगते हैं. यह बात अलग है कि कई लोग ईमानदारी-मेहनत के बजाय सिर्फ उस सफलता-प्रसिद्धि को ध्यान में रखकर जोड़-तोड़ करने लगते हैं, यानी भेड़ की तरह उसका अनुकरण करने लगते हैं. फलस्वरुप बुरी तरह से धराशायी हो जाते हैं.
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50 से 70 के दशक तक की फिल्मों को गीत-संगीत के लिहाज से गोल्डन पीरियड
50 से 70 के दशक तक की फिल्मों को गीत-संगीत के लिहाज से गोल्डन पीरियड माना जाता है. इस कालखंड की सभी क्लासिक्स को 'क्लासिक्स' बनाने में उनके गानों का भी सर्वप्रमुख योगदान है. कई ऐसी फिल्में भी हैं, जो बॉक्स ऑफिस पर बुरे प्रदर्शन करने पर भी सिर्फ सुमधुर गीत-संगीत के कारण आज तक चर्चित हैं. 50 साल बीत जाने के बावजूद आज भी श्रोतागण, सिनेप्रेमी सुकून-आनंद की प्राप्ति के लिए उन्हीं गीतों में गोता लगाते रहते हैं.
'मेरा नाम जोकर', 'कागज के फूल' और 'तीसरी कसम' जैसी फिल्में भले ही आज कालजयी कही जाती हों पर अपनी रिलीज के समय बहुत बुरी तरह से असफल हो गईं थीं. इनके साथ बहुत दर्दनाक कहानियां भी जुड़ी हुई हैं. जिन निर्माता, निर्देशकों, कहानीकारों के लिए फिल्में बनाना धंधा के बजाय जुनून है, जो किसी भी परिणाम की परवाह किए बिना अपने विषय के साथ जरा भी समझौता नहीं करना चाहते हैं, उनके लिए ऐसी मूवीज ही आदर्श-प्रेरणा हैं. इनका वर्तमान परिणाम यह हौसला देते रहता है कि जो चीज जिसको भी हासिल करने का गुण रखती है, आज नहीं तो कल हासिल करके ही रहती है.
(प्रियरंजन शर्मा फ़िल्मों के शौक़ीन हैं और इन पर अक्सर विस्तार से लिखते रहे हैं )
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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